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Introductory Issue
DreamTalks ©️ Volume 1 | Issue 1 May 2020
अभिनन्दन
Bilingual Magazine
अल्फाज़ - बोलते सपने
सब से पहले मैं अपने
DreamTalks परिवाि
अल्फ़ाज़
का
तहे ददल से शुक्रिया अदा
ये ऑनलाइन पत्रिका आप की अपनी है। इस में परिवाि का कोई िी सदस्य अपनी िचना प्रकाभशत कि सकता है। कववता, लेख, कहानी, शायि , संस्मिण, लघक ु था, गीत इत्यादद औि जो स्वयं िचचत है।
किती हूँ हम से जुडे िहने
पत्रिका का उद्दे श्य क्रकसी की
औि इस मंच को सकािात्मक
िावना को ठे स पहुूँचाना नह ।ं
बनाए िखने के भलए।
जाने अनजाने गलतत के भलए क्षमा पिााथी हूँ। पवाानम ु तत के
आप सब इस परिवाि के स्तंि हैं।
जजस में िी आप की रुची है
त्रबना पत्रिका की क्रकसी िचना का
आप सब का एक
व्यवसातयक अथवा क्रकसी िी रूप
दसिे के प्रतत प्रेम, आदि औि
में प्रयोग वजजात है।
अपनापन सिाहनीय है। मैं आशा किती हूँ की इस
पत्रिका अनेक लेखकों की िचनाओं
परिवाि का हि एक सदस्य
का संकलन है एवं लेखक अपनी
इक दजे के प्रतत सदै व
िचनाओं के भलए स्वयं उतिदायी
तनशठावान एंवम प्रेम िावना
है औि उनके अचिकाि सुिक्षक्षत
िखेगा। आप सब एक दजे का हाथ थाम एक दजे को प्रोत्सादहत किते िहें ग।े प्रेम सदहत आिाि आपकी मंजीत िाजबीि एक सोच
मेिे कुछ जज़्बात खो गए हैं
Under section 107 of the copyright act 1976, allowance is made for ‘fair use’ for purpose such as criticism, comment, news reporting, teaching, scholarship, and research. Fair use is a use permitted by copyright statute that might otherwise be infringement. Non-Profit, educational, or personal use tips the balance in favour of fair use.
हैं। पत्रिका में छपी तस्वीिें इंटिनेट से ल गई हैं औि उन पि पत्रिका का कोई अचिकाि नह ।ं इनका उद्दे श्य भसफा प्रतीकात्मक है।
All images are for illustrative and motivational purposes only.
कह ं
This Magazine essentially is a platform to help promote and share poetry and prose of the writers. The copyright and it’s responsibility lie solely with the writer.
ना जाने कहाूँ िख के िल
आशा किती हूँ की परिवाि को जोडे िखने का ये मेिा प्रयास आपको पसंद आयेगा। यह मेि पहल
किी किी उन्हें ढूँ ढती हूँ बैठी हूँ
औि उनका पता उन्ह ं से पछतीं हूँ
पत्रिका है खाभमयाूँ िी अनेक होंगी जजस के भलए क्षमा। मंजीत िाजबीि मंजीत िाजबीि
****************************अल्फ़ाज़****************************
मेरी प्रेरणा मेरी प्रेरणा का कोई नाम नहीीं वो हर कोई है जो
मेरे दिल में घऱ कर जाता है मेरी प्रेरणा वो हर एक मज़हब है
जो नेकी सिखा जाता है मेरी प्रेरणा वो हर एक
ििद है जो मुझे आँिू की िौग़ात में समलता है मेरी प्रेरणा हर एक
ििदनाक हाििों िे भरा है
जो मेरे जीने की वज़ह बन जाता हैं मेरी प्रेरणा वो हर एक इींिान है जजिने मुझे नीचा दिखा के
बि मुझे ख़ुि िे ऊपर उठाया मेरी प्रेरणा मेरा हर एक ररश्ता है
इक़ माँ अपने बच्चे को िल ू ारती तमाम रात िीने िे
लगा लोरी
िन ु ाती तमाम रात
करता रहा गीला बबस्तर को
ममता का िूखा आींचल लगाती तमाम रात हाजत है उिको िध ू की रोता है इि क़िर
अश्क़ों िे भीगी उीं गली पपलाती तमाम रात बच्चे को भख ू ा िे ख बबलखती रही मगर िे कर फ़रेब उिको िुलाती तमाम रात
फ़ररश्ता तो नहीीं िे खा मगर माँ को िे खखए वो हर ि:ु खों में िाथ ननभाती तमाम रात बच्चे की जज़ि को पूरी करती तमाम रात
चचराग़ िी जलती रही इक़ माँ तमाम रात मेरी प्रेरणा मेरी माँ *****चचराग़ राही*****
जजिने मुझे चलना सिखाया
मेरी प्रेरणा वो हर एक शक़्ि है जो हर मोड़ पे मेरा िाया बनके खड़ा होता है
क्या बयाँ करू मैं ख़ि ु की प्रेरणा को मैं स्वयीं एक ज्योती का अींश हूँ परमात्मा के िींिार में....... *****सशल्पा*****
बार - बार
मेरी प्रेरणा उन पर मेरा मन ननछावर है उन्हें पुकारता है हरपल ये
िाथ नहीीं पाि िाथ ही रहे
वक्त की आग को जीवन कहे रहे प्रफुजल्लत हर रण में
थे अडड़ग जीवन पथ पर
मुझको मुखद और खुि को मेरा नाना कहे
Missing my BHA.. *****वन्िना माथरु *****
****************************अल्फ़ाज़**************************** 2 मेरी प्रेरणा एक अजनबी एक अजनबी की तरह वो आये
मेरी प्रेरणा का स्रोत थी मेरी दहन्िी की अध्यापपका श्रीमती गाँधी जी
थे मेरी जज़न्िगी में
मेरे जीवन की राह
दिल उनके बबना अब लगता नहीीं
बाह पकड़ के मेरी वो मेरे िाथ आई....
ना जाने वो कब खाि हो गए
जैिे प्यािे को पानी की चाह हो
को इक मींजज़ल दिखलाई
उि तरह मेरे सलए मेरी जान हो गए
स्कूल की िहलीज़
वैिे व्हाट्ि ऐप, फेिबुक िे तो नाता पुराना था
कई आशींकाओीं िे ननकाला उन्होंने....
पर उनके आने के बाि
तक मुझे िम्भाला उन्होंने
हम कुछ ज्यािा ही इनके पाि हो गए
कहा मुझ िे चलते
इि क़िर उनिे जुड़े की, औरो िे बेजार हो गए
ककिी भी पररजस्थनत में झुकना नही....
िोते जागते बि उनका ही इींतजार है अब
चले जाना यँू रूकना नही
पर वक़्त के आगे कब चली ककिी की
तम ु में क्षमता है खि ु
और हम कफर तन्हाई की गसलयों में बरबाि हो गए
तुम्हें ज़रूरत नही ककिी िे डरने की....
वक़्त के िाथ वो भी बिल गए
िे खुिको िाबबत करने की
मेरे अन्िर एक शोर िा उठने लगा
कर के हौंिला बुलींि
लफ्जों को पनों पर उतारने लगे
स्कूल की िहलीज़ लाघ ननकल पड़ी....
पर मन की बात ककि िे कहें
अपने अींिर के हर ििद को उकारने लगे जो कभी ककिी को दिखा नहीीं *****ररती नतवारी*****
मैं मींजज़ल की ओर चल पड़ी
था इरािा इक अच्छी
सशक्षक्षका और लेखखका बनूँगी
अपने हरे क िपने को खुि ही बुनुगी.... ककया अपनी मींजजल
को हासिल और कृताथद हो गई
और उि दिन िे ही मैं यथाथद हो गई..... *****
िे
तक िुरू*****
****************************अल्फ़ाज़**************************** 3 मेरी प्रेरणा मेरी माीं
"अपना िा अजनबी "
कौन कहता है वो अनपढ़ थी
अचानक जज़न्िगी में कभी,
कैिे मान लूीं वो नािमझ थी
िब के बीच एक वो ही तो थी
जो मेरी ख़ामोशी को बाखब ू ी िमझती थी मेरे हर लम्हे का गखणत
एक अन्जान िा शख़ि आता है,
जो िोस्त भी नही ,हमिफ़र भी नही, कफर भी दिल को बहुत भाता है, ढे रो बाते होती है उि िे, अपना िख ु िुख भी बाँटते हैं,
मेरी हर मुस्कुराहट का ज्ञान
है त वो अनजाना िा पर दिल को बहुत जाना पहचाना िा लगता है,
मेरे खामोश लफ्ज़ो की भाषा
कफर भी उिकी हर बात मानने का दिल करता है,
िबकी ित्ु कार....उिका अत्ह प्यार मेरी िबल ... मेरी प्रेरणा आज नहीीं है िाथ मेरे पाि मेरे
लगता है अधरू ापन खुि में मुझे आज नहीीं हैं िाथ मेरे, पाि मेरे
भरी धूप में ठीं डी छाींव िेता था तेरा आींचल मुझे ना कोई तुझ िा था ना है ना होगा
िब कुछ हासिल है आज तेरी आची को सिवा तेरे बि तुझ जैिी बन पाऊीं
तेरी सशक्षा को िाथदक कर जाऊीं तेरे नाम को रोशन कर जाऊीं बि यही वजह बाकी है अब जीने के सलए *****अचदना गुप्ता*****
कोई ररश्ता नहीीं है उििे,
कोई हक नहीीं है उिका हमपर,
कफर भी उिका रूठ जाना हमको अच्छा लगता है, जब कुछ भी िुनने का मन ना हो तब भी, उिको िुनना अच्छा लगता है, अजीब बात है,
कोई ररश्ता नहीीं है उििे, कफर भी वो,
अपनो िे भी ज्यािा अपना लगता है,
कभी कभी िोचता हूँ, शायि इिी को रूह का ररश्ता कहतें हैं, जैिे पपछले जन्म का छूटा िाथ कोई,
इि जन्म में िरू का िाथी बनके समलता है अजीब िा ररश्ता है,
जजिे कोई नाम िे ने का दिल नहीीं करता है
पर वो मेरी जज़न्िगी में एक अहम जगह रखता है, ऐिे लगता है जैिे कुछ पपवर िा है, प्यारा िा है, मेरे दिल का एक कोना जैिे,
उि ही की खश ु ी िे महका करता है! *****िोमेश िचेती*****
****************************अल्फ़ाज़**************************** 4 नदियाँ सिफद रास्ता ढूींढती है खारे िमींिर को पाने का, मीठे तालाबों की उन्हें क़द्र नहीीं होती.
पर मानता हु तू हालातों िे मजबूर होकर कही छोटा तालाब बन बैठा है अपने बढ़ने की आि जाने अनजाने दिल िे खत्म कर बैठा है
हर इींिान में एक जज़्बा होता है कुछ कर दिखाने का, कुछ पाने का.
उि पल को तू अपने अींिर कही िबा बैठा है... दिल और दिमाग िो बड़े हचथयार है तेरे िाथ तू कभी अकेला नहीीं हो िकता
कफर भी तूने ये मान सलया तो तेरे िे बड़ा कोई फ़कीर नहीीं हो िकता.
इन हचथयारों की परवाह कर, इन्हे िमझने की कोसशश कर ...
पूछेगा जब तू तेरे दिल िे की मींजज़ल इतनी िरू क्यूँ है ...
दिल बोलेगा तेरा तुझिे तू खुि पर पवस्वाश खोने को मजबरू क्यूँ है
जब मैं हूँ तेरे िाथ तेरा िच्चा िोस्त तो तू लोगो के पैरों में चगरने को मजबूर क्यूँ है .... िनु नया उिी की क़द्र करती है जो िमींिर की तरह शाींत पर बहुत बड़ा होता है.
हाथी की थोथली चचींघाड़ और मजबत ू दिल और दिमाग वाली शेर की िहाड़ में बहुत फकद होता है.
खि ु पर पवश्वाश जो खो िे ता है वो िि ु रो को अपने ऊपर राज़ करने का मौका िेता है.
उठा तेरे हचथयार!!! जो तेरे िाथ है, ये तेरा दिल और तेरा दिमाग तेरे िाथ है!
याि रखना जज़न्िगी चगराएगी तुझे जब भी तू कोई तेरा लक्ष्य बनाएगा.
तब पता चलेगा तेरे िमिार हचथयारों का जब तू चगर कर खड़ा हो जायेगा
शुरुआत करने िे पहले इि बार सिफद खुि के दिल िे पूछना
अगर तू िही है तो बबना झुके लाखों को झुकाने का ज़ज़्बा रखना ...
हर िब ु ह जब पड़े किम ज़मीीं पर तेरे तो मींजज़ल तक पहुींचने का एहिाि रखना .
जहाँ रुके कोई थक कर क़ाकफ़ला आराम करने वही िे तू शरु ु आत करना ...
कफतरत है उनकी डर कर आराम करने की पर तूने क्या िोचा था तू याि रखना
िश्ु मन भी मुड़ कर िे खे तुझे ऐिी अपनी चल में शान रखना ...
सशखर तक पहुींचने के बाि भी बढ़ते रहने की आग दिल में जलाये रखना लोगों के रीं ग बिल जायेंगे हर बार की तरह इि बार भी तेरे नज़ररये को लेकर, ये वािा है मेरा तुझिे! बि अपनी आवाज़ में िम रखना और "खुि पर पवस्वाश" बनाये रखना
*****शौयद राठौर*****
****************************अल्फ़ाज़**************************** 5
नज़्म मैं उि दिन की राह िे ख रहा हूँ अिीबों जजि रोज़ मेरी मौत का आख़री दिन होगा कक तुम होगे शरीक मेरी मैय्यत में मेरी क़ब्र पर समट्टी डालने को तड़पोगे मेरा नाम ले-ले कर मुझिे समलने को, लेककन! मेरी मक ू तस्वीरें तो होंगी पर..., मैं... नहीीं
चढ़ा जाओगे फूल, मेरी क़ब्र पर और....
पा जाओगे छुटकारा
एक बरि के सलए...। *****©️ चिऱाग ऱाही*****
ग़ज़ल वो आ के पहले तो मस् ु कुराए
और िलाम को िस्त उठा दिया नज़र िे उनकी नज़र समली
और नज़र ने पिाद चगरा दिया पेश-ए-खखिमत िलाम कर करके नीची नज़र कहें
उि नज़र का बोिा कुबल ू हो
रहे मक़्िि-ए-िनु नया बा-आबरू
तुझे जलते चचराग़ ने िआ दिया ु *****©️ चिऱाग ऱाही*****
ग़ज़ल तुझको िज़्िा करूीं और तू ख़ुिा हो जाए
मजा तो जब है ख़ि ु ा िे खे और खफ़ा हो जाए चेहरे पे नूर तेरे रूख़ पे पररशाीं जुल्फ़ें
मजा तो जब है जो िे खे वो कफ़िा हो जाए है सशद्ित-ए-ििद और तेरी जुल्फ़ों में चगररफ़्तार हूीं मजा तो जब है पेशानी चम ू ो और सशफ़ा हो जाए क्यों इबाित करूीं और फररयाि िस्त-ए-िआ में ु
मजा तो तब है नज़र उठे और तू रू-ब-रू हो जाए बे-नूर शब में पररशाीं हूीं और क़ायनात भी मजा तो तब है जुल्फ़ रूख़ िे हटे और नरू हो जाए क्या फ़कद पड़ता है चचराग़ जले या बुझे
मजा तो जब है तुझे िे खूीं और रूह परवाज़ हो जाए *****चिऱाग ऱाही*****
जजि नज़र ने पिाद चगरा दिया कसशश मोहब्बत की खीींच लाई या दिल को मेरे गुमान था बक़े लब गुल खुले ही थे
कक नज़र ने िब कुछ बता दिया वो हाल ऐिे बयाीं करें
कक दिल ही गुलशन ियार हो
ज़ुबाीं न उिकी जो बोल पाए वो पेंच-ओ-खम ने दिखा दिया
तेरी ताबबश-ए-िनु नया आबाि हो मेरे दिल की है ये आरज़ू
ग़ज़ल जुल्फ़ें रूख़ पे परे शाीं िनम अच्छा नहीीं लगता
उिािी चाँि िे रूख़ पे िनम अच्छा नहीीं लगता तुम्हें नूर-ए-नज़र कहते हैं िे खो चाँि तारे भी
बे-रूख़ी चाँि तारों िे िनम अच्छा नहीीं लगता गुल-ए-रूख़िार िे शबनम के क़तरे को झटकते हो ककिी को यूीं झटक िे ना िनम अच्छा नहीीं लगता
****************************अल्फ़ाज़**************************** 6 जह़ााँ का लम्हा-लम्हा भी फक़त कहते हैं ये आकर
ककिी की िनु नया रहे वीराँ िनम अच्छा नहीीं लगता जलता है ििा चचराग़ आफ़ताब की माजन्नि तू मत हो पशेमाीं िनम अच्छा नहीीं लगता *****चिऱाग ऱाही*****
तम ु मेरे िोस्त हो शायि, तुम मेरे िोस्त हो शायि, िोस्त ही होगे...
वरना तुम क्यों बार बार मेरा हाल पूछते, क्यों मेरी उखड़ी िाँिों को िीींचते, क्यों तुम अपना नहीीं बताते, क्यों मेरा िन ु कर पछताते, क्यों आँखों िे मेरे बहते,
कतार पहली कतार में मजिरू चीींदटयाीं खड़ी रही,
क्यों नीींिों में मेरे जगते,
क्यों तुम मुझको िे ते दिलािा,
जब तम ु को भी नहीीं थी आशा,
एक िि ू रे के पीछे लगातार बोझ ढोती हुई, उन्हें माक्िद के सिद्धाींतों के गीत िुनाए गए,
क्यों तम ु इतना िमय गींवाते,
दिन रात शहि इकट्ठा कर, गोिामों को भरती हुई, उन्हें फूलों के कजद की माफी की तख्ते दिखाए गए,
िरू चले जाओगे, कहते,
हमेशा िावधान, जान की बाजी लगा िे ने को तैयार,
जब की लहू सभन्न है मुझिे, िोचूीं क्या ररश्ता है तझ ु िे,
िि ु जक्खयाीं उड़ती रही, ू री कतार में कृषक मधम
तीिरी कतार में वफािार रक्षक कुत्ते तत्पर रहें , वो छाती पर लटकते मैडल िे भरमाए गए,
िींग मेरे बच्चे बन जाते,
क्यों तुम मुझ पर गुस्िा करते, पर तुम कहीीं नहीीं जाते हो, नैन बींि, नज़र आते हो,
चौथी कतार में बुद्चधजीवी कौवे मींडराते रहे,
तम ु मेरे िोस्त हो शायि,
पाँचवीीं कतार में पज ूीं ीपनत चगद्ध इतराते रहे,
*****©️ नीरज त्रिप़ाठी*****
वो िब खेल में शासमल कर भागीिार बनाए गए,
©️ Portrait Artist Simran Thakur
एक िि ू रे िे ऊींची आवाज में काींव काींव करते हुए, वो िब परु स्कार के पनीर िे ललचाए गए, िारे ही िींिाधनों पर कब्जा जमाते रहे,
आखखरी कतार में िवोपरर भेडड़ए मुस्कराते रहे,
शब्िों के जाल में िब को धीरे धीरे फाींिते गए, नोच नोच कर माींि की िावतें उड़ाते गए,
कफर चाींिनी रात में खूब मज़े िे हुींकार लगाते गए….. *****©️ हरिीप िबरवाल*****
िोस्त ही होगे
https://www.instagram.com/simt08/
****************************अल्फ़ाज़**************************** 7
ख़ालीपन इन िूखे पत्तों पर, चलते वक़्त,
कुछ अजीब लगता है,
जैिे कोई गम नहीीं है, कुछ भरा भी नहीीं है, खाली है िब,
िरू तक....िब खाली है; और इिी खालीपन में,
तुम्हारे होठों पर मुस्काीं है, और मेरे होठों पर, गाली है,
और ककतना भी,
हम अिला बिली करलें,
िरू तक....िब खाली है... इिी खालीपन में, एक िनु नया है,
जो थमती नहीीं है, जो गसमदयों में,
पपघलती नहीीं है, और ठण्ड में,
जमती नहीीं है, ये ककिी के वजूि को, तरिती नहीीं है,
और ककतने भी बािल नघर आयें, जब चादहए,
तब बरिती नहीीं है. इिी खालीपन में, कुछ पररवार हैं,
माँ बाप हैं, यार हैं,
इिी में शौहर है, बीवी है, एक प्यारी मनु नया है, इिी खालीपन में, एक िनु नया है....
इिी खालीपन में,
द्वन्ि में जीना है, इिी खालीपन में,
शाींनत िे मरना है, इिी खालीपन में, िराजें हैं,
जजनमे तह करके, रखी कुछ यािें हैं, इिी खालीपन में, मजारें हैं,
जजनमे िाींि लेते,
कुछ अनकहे, अनिल ु झे, बेचारे हैं,
इिी खालीपन में, चाँि है, तारे हैं,
और उनको बुहारने के, अरमाीं हमारे हैं,
इिी खालीपन में, कहीीं की रात,
कहीीं का िवेरा है,
ककतना भी हम लड़ लें, खालीपन में,
क्या तेरा है, क्या मेरा है.... ये खालीपन,
हमारे िाथ चलता है, बींधनों के टूटने पर, हाथ मलता है,
ये खालीपन, ये भी िमझता है, कक ये शख्ि कुछ ख़ाि होगा, तभी यह बावला,
उििे अक्िर लड़ता है. और यही खालीपन, याि दिलाता है,
****************************अल्फ़ाज़**************************** 8 कक कभी कभी चाँि,
कफर भी, अब भी, पैरों के नीचे,
इिी खालीपन में, कोई कहता है,
और इि खालीपन में भी,
ककिी को बरु ा लगता है,
मुमताज़ िोती है,
मेरी खखड़की पर आता है,
कक सलखना बकवाि है,
ये क्या महज़ एहिाि है. इिी खालीपन में, कुछ पहचान है, कुछ गलतफहसमयाीं हैं, और उनमें उलझी, रोज़ ज़ाले बुनती,
मेरे िीवारों की मकडड़याँ हैं.... इिी खालीपन में,
िबते पत्तों की, आवाज़ होती है,
मजबूररयों की,
इि खालीपन में, अब भी एक,
शाहेजहाँ जगता है, इन िूखे पत्तों पर, चलते वक़्त,
कुछ अजीब लगता है *****©️ नीरज त्रिप़ाठी *****
शोखखयाँ हैं, शरारे हैं, इिी खालीपन में,
भावनात्मक िरारें हैं, ककिी रोज़,
इिी खालीपन के,
पाननयों में धुल जाऊींगा, ककिी िाबुन की तरह,
पूजते हैं हम जजिे पूजते हैं हम जजिे हर पवद में, नवरात में,
क्यूँ वो ऐिे कोिती है नतसमर को, िुनिान को; िीट पर बेकफक्र बैठे िे खते ही रह गए,
भीड़ में जो पपि रही थी उि सििकती जान को; शोर िब करते रहे बि इक अिि कानन ू का,
इिी खालीपन में,
पर ककिी ने क्यूँ न िे खा लाज के आह्वान को;
कुछ िमय तक, झाग रहेगा,
िोष िे ते ही रहे हम िोच को, माहौल को,
घुल जाऊींगा,
कफर िब िाफ़ हो जाएगा,
क्या कभी िे खा है हमने अपने ही हैवान को;
और क्या कर िकता हूँ, घुलने िे पहले,
ये कहाँ हम आ गए हैं, भूख की इि िौड़ में,
कुछ और िँ ू न िँ ,ू
*****©️ नीरज त्रिप़ाठी*****
कहाँ िाग रहेगा,
क्या ले जाऊींगा,
अपना खालीपन, तम् ु हे िे जाऊींगा.... अब ख्वादहशें नहीीं हैं, नुमाइशें नहीीं हैं,
इि खालीपन में,
फरमाइशें नहीीं हैं,
खोजना पड़ता है िे खो इक अिि इींिान को;
****************************अल्फ़ाज़**************************** 9
संस्मरण
िपनों िे िपनों तक " written in 1993
कुछ िालों बाि तुम्हे िे खा ; अब भी वैिे ही खड़े हो
मेरे कानों िे घुलकर जो कभी छम छम िरकती थी,
जैिे िब दिन िे थे ; पता नहीीं इतनी लम्बी जज़ींिगी तुम कैिे काट रहे हो ; न तो कभी तम ु पर एक भी खज़ूर फला और न ही तम ु ककिी और
काम आये ;
खड़े रहे वहाँ जहाँ िआ ु र ख़त्म होता है और खेत शुरू ; अिे िे तम ु अपने िामने बोयी आलू को ननहारते रहे
तेरे पायल की आहट, अब ज़रा िब कर ननकलती है;
हया है, या है गम, या शायि इल्म है मेरे इरािों का, जो थी मिहोश िाींिें, अब ज़रा घबरा के चलती है;
.... उन्हें हर िाल खुिते हुए िे खते रहे; तम ु ने िब िे खा है अपनी ऊींचाई िे …चुपचाप .... कभी कुछ नहीीं
जो बातें गेिुओीं िी, राह में िरगम लुटाती थीीं,
कभी हम तुम्हारे नीचे गोबर इकट्ठा करते थे और
समलन के आि की बिरी, िाींझ अक्िर सभगोती थी,
बोले और गाँव बिलता रहा। तुम्हे याि भी है कक
खाि बन जाने पर उिे खेतों में फेंक िेते थे। खाि
उठाते वक़्त मेरे हाथ में जब बबच्छू ने डींक मारा था
िुरों को खोजती िी, अब ज़रा खामोश रहती है;
पवरह की ज़ल् ु म बाररश, अब ज़रा खल ु कर बरिती है;
तब तुम बहुत हँिे थे शायि। आज तुम्हे िे ख कर अचरज हुआ ; क्या तम ु ज़रा भी नहीीं बिल िकते थे
ननकल जाती थी आँखों िे जो पल में बबजसलयों िी,
ज़माने िे जस्थर हो; पर पररवतदन तो हुआ है तुम्हारे इिद चगिद। कच्चे घर चगर गए हैं और ईंटों के आश्रय
मेरी ककस्मत है ऐिी, या िमय मजबूररयों का है,
यरू रया खेतों के पेट में अल्िर बन गयी है ; और
मगर ये भ्रम न रखना, आइनों िा टूट जाऊींगा,
? तम ु पररवतदन कैिे हो िकते हो जब तम ु खुि
बन गए हैं ; लोग पहले िे अचधक धूतद हो गए हैं ;
तुम्हारे िामने बैलों की जगह अब ट्रै क्टर चलते हैं ; पर तुम कुछ नहीीं बोलते
मूक बने रहते हो । तुम ककतना मेरी तरह हो इिीसलए मेरे पप्रय भी हो
मेरी पैिाइश, मेरा गाँव , मेरे गवाह *****©️ नीरज त्रिप़ाठी *****
पलक पर रात भारी, अब ज़रा रुक कर गुज़रती है;
जो गाती थी दिशायें, अब ज़रा नछप कर िब ु कती हैं;
बड़ी जजद्िी शक़ल है, अब ज़रा कफर िे िींवरती है; बहुत िे खी हैं रातें, गम बहुत िा पी सलया नीरज, मेरी कफ़तरत है ऐिी, अब ज़रा चगर कर िींभलती है; *****©️ नीरज त्रिप़ाठी *****
****************************अल्फ़ाज़**************************** 10
जािू
वह नौकरी कर रहा है बरिों िे,
कागजों िे फूल लाया, वाह क्या करतब दिखाया,
पर कहीीं िरू भटकता उिका मन है,
एक सिक्के िे तो िे खो िैकड़ों सिक्के बनाया,
इिको काटा, उिको जोड़ा, बिल िी कैिे काया, वाह जािग ु ाया; ू र जी तुमने िशदकों को क्या लभ
पर ये भ्रम पैिा ककया है, आँखों की कमजोररयाीं हैं, अिल जाि ू तो तुम्हारे और मेरे अन्िर भरा है,
खोज पाओ यदि कभी तो, िजृ टट भी छोटी जगह है,
वरना यूँ ही जायेगी कट, जीने में कफर क्या धरा है; जज़न्िगी की जींग में झेल िकता क्रूर शोले,
कठुर तटृ णा को अपनी िहृियता में िींजो ले,
मार मन की रोशनी िे नतसमर में द्वार खोले, वह ही िच्चा जाि ू है िर पर चढ़ कर बोले; *****©️ नीरज त्रिप़ाठी *****
िब कहते हैं कक वह काबबल है,
जो है, वह उिकी प्रनतभा िे कम है, जो नहीीं, वह उिका अधरू ापन है, और इन िब की उधेड़बुन में,
आज उलझ गया उिका जीवन है,
क्यों कहते हो; यदि नहीीं बल ु ा िकते, वहाीं िे, जहाँ भटका इिका मन है, वो कोई शीशा नहीीं है,
कक उिमे अपना प्रनतबबम्ब िे खोगे,
कोई मेज़ पर रखा चगलाि भी नहीीं, कक आधा भरा या खाली िे खोगे,
वो कोई पवद्वान नहीीं, धनवान नहीीं, कोई िे व नहीीं, िानव भी नहीीं, कोई रजा, रीं क, सभखारी नहीीं,
ये कैिी पहचान (the parting poems) उिके पाि बहुत िी भौनतक वस्तए ु ीं नहीीं हैं, िाज़ो िामान, ऐशो आराम नहीीं है,
यँू तो एक िींतटु ट जीवन यापन के िाधन हैं, पर िींतुजटट की िमुचचत िीमाएीं नहीीं हैं, अब वह अधेड़ हो चला है,
अब भी उििे िब की बहुत आशाएीं हैं, वह कोसशशों में बहुत िमय बबताता है, पर उिकी अपनी िमस्याएीं हैं.
उिने िे खा है कफिलते इन हथेसलयों िे, मछसलयों की तरह ररश्तों को,
पकड़ता रहता है उन्हें वह उधार की तरह, जैिे भरता हो हर महीने ककश्तों को,
खट रहा है वह उि चक्की की माकफक, जजिमें तेल ननकलता है िरिों िे,
क्या हुआ की वह अब भी आम है,
कोई िवद गण ु िींपन्न मानव भी नहीीं, वो इक अिना िा इींिान है, उिके भी कुछ अरमान हैं,
पर क्या कुछ भौनतक कमजोरी ही, अब उिकी पहचान हैं,
ठीक है वह िशादता नहीीं है,
पर वह भी तो ऐतबार करता है,
उिको जताने का ढीं ग शायि नहीीं आता, पर वह भी तो प्यार करता है,
ककस्मत पर उिका ज़ोर नहीीं है, पर कोसशशें हज़ार करता है,
िुख का, िाज़ो िामान, ऐशो आराम का, वह भी तो इींतज़ार करता है, उिकी भी दिली तमन्ना है,
वह जैिा है, अपनाया जाएगा, उिके अपने भी अपने रहें गे, वह भी पहचाना जाएगा,
****************************अल्फ़ाज़**************************** 11 इिीसलए उिकी पवनती है,
वह जैिा भी है स्वीकार करो, एक मनुज के मनोभाव का,
अब तू मेऱा रहबर न रह़ा अब वैसी रहगज़ ु ़ारी न रही.....
यूँ ही न नतरस्कार करो,
ब़ात मुख़्तसर सी
जजि दिन वह जाड़े में बबखर जाएगा,
अब तम ु मेरे से न रहे और अब मै तुम्ह़ारी सी न
उिकी सिहरन िे िब काींपोगे, प्रनतभा को भौनतकता िे,
मेरे आका; कब तक नापोगे.
है कक खुि को समझ़ा लो ज़ऱा, रही..... िे
तक...... िुरू
*****©️ नीरज त्रिप़ाठी *****
वो ब़ात न रही........ इस शहर की
आबों हव़ा में अब वो ब़ात न रही,
अब वो महकत़ा दिन न रह़ा वो बहकती ऱात न रही.....
इन तंग गललयों
से गुज़र कर ज़ाती अब वो सौग़ात न रही,
अब वो ि़ााँि न रह़ा अब वो त़ारों की ब़ाऱात न रही...... तेरे घर के आाँगन
मे चगरती धप ू में भी अब वो खललश न रही,
अब वो रोशनी न रही और अब वो तपपश न रही....... तुझ तक पहुाँि़ाने व़ाली ऱाहों में भी अब वो बेकऱारी न रही,
अब वो िनु नय़ा क़ा खौफ न रह़ा अब वो होलशय़ारी न रही..
तेरी धड़कनों में भी
अब वो वसल-ए-य़ार की खुम़ारी न रही,
अब पहले जैस़ा मज़़ न रह़ा अब वैसी त्रबम़ारी न रही......
तेरी आाँखों में भी
अब वो हम से लमलने की तलबग़ारी न रही,
क्य़ा हूाँ मैं ........ जो कभी भी
खत्म न हो सकी
ऐसी ही इक ब़ात हूाँ मैं जो कभी भी
गुज़र न सकी हो
ऐसी ही इक ऱात हूाँ मैं जो लमल ऩा
सकी ककसी को
ऐसी इक सौग़ात हूाँ मैं जो ककसी ने
कभी पढी न हो
ऐसी इक आय़ात हूाँ मैं जो कभी भी
झुकी ऩा हो ऐसी
ही इक तेज़ नज़र हूाँ मैं जो हमेश़ा से
ििों में रहे ऐसी
ही इक तेज़ खबर हूाँ मैं जो लमल़ा न
सके कभी ककसी
को ऐस़ा ककऩाऱा हूाँ मैं
****************************अल्फ़ाज़**************************** 12 जो छूट गय़ा
हो ह़ाथों से ऐस़ा
इकलौत़ा सह़ाऱा हूाँ मैं जो रोज़ सुन
हो िआ ु ओं से ऐसी
ही खूबसूरत मुऱाि हूाँ मैं िे
तक...... िुरू
ने में आए ऐस़ा
धप ू और छाँव
जो तझ ु े िि़ िे
म्ज़न्िगी को कुछ इस किर गज़ ु ़ारती हूाँ मैं ख़ामोश आाँखों में लसफ़ उसी क़ा अक्स उभ़ारती हूाँ मैं
इक गम़ ककस्स़ा हूाँ मैं
तेरे दिल क़ा ऐस़ा
इक नम़ दहस्स़ा हूाँ मैं जो शुरू से
अंत तक िले ऐसी
ही इक ख़्व़ादहश हूाँ मैं जो हर वक़्त
इम्म्तह़ान ले ऐसी
इक आज़म़ाइश हूाँ मैं जो आाँखों में
हर इक लम्ह़ा बसे
ऐस़ा इक ख़्व़ाब हूाँ मैं जो रोज़ ऱात
अंबर में दिखे ऐस़ा
इकहसीं महत़ाब हूाँ मैं जो िोनों के
िरलमय़ां हरपल रहे
ऐसी ही इक िरू ी हूाँ मैं जो कभी पूरी
न हो सके ऐसी ही
इक म्जद्ि अधरू ी हूाँ मैं जो लमलती हो
इब़ाित से ऐसी ही
इक नेक फररय़ाि हूाँ मैं जो कबूल होती
िे ख उसक़ा हसीं िेहऱा कहीं खो ज़ाती हूाँ उस की म़ासूलमयत िे ख कर उस जैसी ही हो ज़ाती हूाँ तकती हूाँ ऱाह उसके लौट के िले आने की वो भी तो कोई भी वजह नहीं छोड़त़ा मुझे सत़ाने की मेरी म्ज़न्िगी की सफीऩा क़ा हर हफ़ है वो
इस ब़ात क़ा इल्म है मझ ु े कक बड़़ा ही कम ज़फ़ है वो उसे मुझ पे तो क्य़ा खुि पर एतब़ार न रह़ा
याँू कर त्रबखऱा है वो कक अब मेऱा भी तलबग़ार न रह़ा सोिती हूाँ कक इस ब़ात पर उसे क्य़ा बोलाँ ू बैठी रहूाँ यूाँ ही य़ा कफर खि ु मे लसमट के ज़ऱा स़ा रो लाँ ू
उसकी नम आाँखें बहुत कुछ कह ज़ाती है िे खके उसे इस ह़ाल में मेरी आाँखें िुप सी रह ज़ाती हैं ख़ामोश आाँखों से वो बहुत कुछ कहत़ा है मेरी इस म्ज़ंिगी में वो धूप और छ़ााँव की तरह रहत़ा है कभी धूप क़ा टुकड़़ा बन कर झ़ांकत़ा है
सैकड़ों की भीड़ में वो मझ ु े कुछ अलग ही आंकत़ा है तो कभी छ़ााँव बन कर सीने से लग़ात़ा है
अपनी ब़ाहों में समेटऩा मुझे ही नही उसे भी आत़ा है िे
तक...... िुरू
****************************अल्फ़ाज़**************************** 13
सोिती हूाँ कैसे
इन तंग गललयों
सोिती हूाँ अक्सर कैसे सरू ज अपनी गमी के
अब वो ि़ााँि न रह़ा अब वो त़ारों की ब़ाऱात न रही
स़ाथ आसम़ां की नमी मे घुल ज़ात़ा है कैसे स़ााँझ होते ही
तपत़ा हुआ स़ा दिन ढलकर अाँधेरे में ि़ााँि की ि़ााँिनी से धुल ज़ात़ा है कैसे िररय़ा क़ा बहत़ा
प़ानी लंब़ा सफर तयकर कइ
मोड़ मड़ ु ते हुए भी स़ागर में लमल ज़ात़ा है कैसे गुलशन में फक़त
क़ााँटों से भरी सेज पर भी कोई
खूब सूरत फूल मुस्कुऱा कर खखल ज़ात़ा है कैसे कोई पररंि़ा कहीं
िरू आसम़ान में अपने पंखों को
फैल़ाए अपने ही आलशय़ा तक उड़ ज़ात़ा है कैसे कोई ऱास्त़ा अपने
सफर क़ा होते हुए भी ऱाह पर मील क़ा पत्थर िे ख बीि ऱाह मुड़ ज़ात़ा है
से गुज़र कर ज़ाती अब वो सौग़ात न रही, तेरे घर के आाँगन
मे चगरती धूप में भी अब वो खललश न रही,
अब वो रोशनी न रही और अब वो तपपश न रही तुझ तक पहुाँि़ाने व़ाली ऱाहों में भी अब वो बेकऱारी न रही,
अब वो िनु नय़ा क़ा खौफ न रह़ा अब वो होलशय़ारी न रही
तेरी धड़कनों में भी
अब वो वसल-ए-य़ार की खम ु ़ारी न रही,
अब पहले जैस़ा मज़़ न रह़ा अब वैसी त्रबम़ारी न रही तेरी आाँखों में भी
अब वो हम से लमलने की तलबग़ारी न रही,
अब तू मेऱा रहबर न रह़ा अब वैसी रहगुज़़ारी न रही ब़ात मुख़्तसर सी
है कक खि ु को समझ़ा लो ज़ऱा,
अब तम ु मेरे से न रहे और अब मै तुम्ह़ारी सी न रही िे
तक...... िुरू
कैसे मेरी ही ककत़ाब के
हर इक पन्ने पर ललख़ा एक एक
शब्ि मझ ु े कुछ न कुछ अधरू ़ा कर ज़ात़ा है कैसे तेऱा मेरी म्ज़ंिगी में
न हो कर भी यूाँ ही कहीं न कही
ज़ऱा स़ा श़ालमल होऩा मुझे पूऱा कर ज़ात़ा है वो ब़ात न रही........ इस शहर की
आबों हव़ा में अब वो ब़ात न रही,
अब वो महकत़ा दिन न रह़ा वो बहकती ऱात न रही.
क्य़ा करें दिल ही तो है
****************************अल्फ़ाज़**************************** 14
#गंुज तुम्ह़ाऱा कुछ नहीं िे ऩा भरत़ा है मेरे सीने को
अशेष की पररभ़ाष़ा से
और ख़ामोश लम्हो मे
इक मुस्कुऱाहट सी उभरती है जो पलकॊ को लभगोकर लमट़ा िे ती है
स्य़ाह रं गों कॊ .......
मगर उि़ालसयों ने ढूाँढ कर बऩा ललय़ा है खुि इक जगह...
जो मै ऩा भी रहूाँ उनमे मुझमे वो बसती है ब़ािल हो तम ु
ढलते सरु ज की तरह..... ज़ाड़ॊ की ऱात
और बेवक़्त मरु झ़ाये फुलो की तरह सभी कुछ कभी ऩा कभी खुबसुरत हो ज़ात़ा है.
तुम मेऱा सिहव़ा श्ंग र ़ार हो सोलह के सोलह श्ंग र ़ार
मुझसे हैं - मुझमॆ है *****©️ ड़ा. गुंजन उप़ाध्य़ाय प़ाठक*****
मुखौटे
िो बूाँि से तुम्ह़ाऱा कुछ ऩा ज़ायेग़ा
ककतने खुबसरु त होते हैं लोग
िो बूाँि मुझे िो घड़ी भी नहीं लभंगोती .....
पवि़ा हो ज़ाते हैं िनु नय़ा से
मैं प्य़ास रे चगस्त़ान की
जो िि़ को आत्मस़ात कर खुि मे
*****© ड़ा. गंज ु न उप़ाध्य़ाय प़ाठक*****
जीने के बहुतरे े ननयमॊ और ि़ावाँ - पेंि से कदह िरु ... यह़ााँ जो बि ज़ाते हैं ...
िरहवा श्रींग ृ ार
उन्हें कठोर क़ाऱाव़ास मे
क्य़ा सिमि पत़ा नहीं िल़ा थ़ा
हॊठॊ पर झूठ कक मुस्क़ान चिपक़ाये
यशोधऱा को बुद्ध के ज़ाने क़ा य़ा कफर
आंखों को लमिे पड़े रहने दिय़ा होग़ा खुि को ....
वह ब़ाध़ा बन भी कैसे प़ाती प्य़ार जो ककय़ा थ़ा उसने उसने स््तन्ि ककय़ा थ़ा प्रेम बंधनो मे नही
पवश्व़ास मे पनपत़ा है......
तुम्ह़ाऱा आऩा बह़ारो के मौसम ज़ाड़े की धुप यों दह उग आये...... अपऱाम्जत़ा के फुल की तरह और ज़ाऩा भी....
अपने ही ख्व़ादहशो को बंि कर
जीने क़ा अलभनय करऩा होग़ा... गली के अंनतम छोर पर
आज भी कोई भुख़ा सोय़ा होग़ा कदह ककसी की ऱात
ठं ड मे करवटॊ मे गुज़रॆ गी
कदह कोई अच्छे त्रबस्तर मॆ भी नीिं
को तरसेग़ा ....
कोई त्रबऩा बंधनो मे बंधे भी ररश्ते ननभ़ा ज़ायेग़ा...
कोई ररश्ते के मुखौटे लग़ाकर सब कुछ लुट ले ज़ायेग़ा
*****© ड़ा. गुंजन उप़ाध्य़ाय प़ाठक*****
****************************अल्फ़ाज़**************************** 15
अधेऱा
नेत़ा ये ठ़ाने बैठे हैं
जब हृिय क़ा गीत घुटने लगे
सड़कों पर पथरबजी है
स़ााँसो मे कुछ िभ ु त़ा स़ा लगे क़ान के प़ास की नस
कीट कीट..... बजने लगे..... कुछ मर ज़ाये अंिर
घट ु ने लगे िम पर िम.....
तब कुछ शब्ि उभर ज़ाते हैं हव़ा मे
िन ु -िन ु कर शब्िों को
इक लम्ह़ा बऩाती हूाँ..... श़ायि इन्ही लम्हॊं में कपवत़ा जन्म लेती है कहने और ऩा कहने के मध्य ये कपवत़ा बहती है.....
तुम्ह़ारे ललए जो कुछ भी हो ये मेरे बच्िे हैं....
जब कभी तम ु मेऱा ह़ाथ थ़ाम लेते हो
मेरी होठॊ पर इक मद्चधम मुस्क़ान होती हैं बच्िे आश़ाये हो सकते हैं
जीने की कुछ बेख़ास्त़ा ख्व़ादहशे ललये
और हम म्जन्ि़ा होने क़ा ढॊंग करते हुये *****© ड़ा. गुंजन उप़ाध्य़ाय प़ाठक*****
प्रेरण़ा अंधेऱा थ़ा मेरे सीने क़ा म्जससे ननकले शब्िो के म़ाध्यम से
*****©️ रीनत नतव़ारी*****
एक ख़्वाब तम ु हक़ीक़त नहीीं बि एक ख़्वाब हो आँख बींि करते ही आते हो तुम जब ख्यालों में उि पल मुझे आँख खोलने पर भी एतराज हो मैं समली नहीीं कभी तुम िे
पर कफर भी मेरा बेपनाह प्यार हो तम ु मेरी जज़न्िगी, मेरी आरज़ू हो तम ु
इि जज़न्िगी के िफ़र में हमिफर हो तुम जजिे हर िआ में अब खि ु ा िे माींगते है ु वो ही मेरी पाक मन्नत हो तम ु
बबना िे खे जजि पर हार बैठे दिल
वो िपनो मे बिा इक इींिान हो तुम
दिल व़ासों की नगरी दिल्ली दिल व़ालो की नगरी श़ायि ये लसफ़ कहने को है
इक िज ू े की ज़ान के िश्ु मन
घर घर धधके आज यह़ााँ
आज यह़ााँ सब लहू लूह़ान ऊपर व़ाल़ा भी है हैऱान
जो दिल को िुकून िे वो एहिाि हो
प्रसव पीड़ा के ब़ाि
नफरत प़ाले बैठे हैं
कैस़ा इनक़ा म़ाज़ी है
सब करते हैं गोरखधंधे
आपके आस - प़ास
दिलों में अब प्य़ार कह़ााँ
कौन स़ा इनक़ा मज़हब है
ऱाम क़ा भक्त अल्ल़ाह के बंिे
त्रबखर ज़ाते हैं.....
बन बैठे अब लोग सब
ये कौन ये कैस़ा क़़ाज़ी है
हैं
अब इिे इश्क़ िमझो या बीमारी
िन ु ो जाना बि मेरा एक हिीन ख्वाब हो तम ु *****©️ रीनत नतव़ारी*****
****************************अल्फ़ाज़**************************** 16
कैसे
आज बैठ़ा है िब ु क कर
कैसे अब तक मैं िल़ा ज़ा रह़ा थ़ा
एक अिऩा स़ा व़ायरस
पूरी क़ायऩात क़ा बोझ उठ़ाए कल की चिंत़ा क़ाल क़ा डर रह ऩा प़ाय़ा त्रबन पछत़ाए
कोई क्य़ा है सोिे मैं कैस़ा सोि सोि दिल बैठ़ा ज़ाए
वो ऐस़ा और मैं हूाँ कैस़ा यही थी चिंत़ा हर पल ख़ाए मेरी खश ु ी है मझ ु पर ननभ़र
आज तलक क्यों समझ ऩा प़ाय़ा
मैंने रोटी उस ने हलव़ा क्यों कैसे कब ककसने ख़ाय़ा
समय लमल़ा है अब मैं सोिाँू
ककतऩा मैंने ्यथ़ समय गव़ाय़ा समय अभी है समय समझ ले पहले जो तू समझ ऩा प़ाय़ा
पहले क्यों तू समझ ऩा प़ाय़ा ©️ मंजीत ऱाजबीर
इंस़ानी है लसयत आज कुिरत ने दिख़ाई हैलसयत इंस़ान की
बन के जमीं क़ा मुह़ाकफज ककतऩा थ़ा इतऱात़ा
बह़ा के लहू उसकी रिऩा क़ा क़ाट कर म्जंि़ा ही िब़ा ज़ात़ा
ककतऩा रुसव़ा ककय़ा रिनयत़ा को कुछ तो बंिे कभी रहम ख़ात़ा
जो ऩा म़ाऩा कभी म़ात दिख़ा गय़ा उसको औक़़ात अब सहम़ा कफरे है मूाँ ढ़ांपे
ह़ाथ लमलने से भी है रूह क़ांपे कभी त्रबत़ाय़ा ऩा इक पल भी अपनों के स़ाथ
अब करे लमन्नतें और ह़ााँफे कफर भी कह़ााँ सम्भल़ा है
दिम़ाग से लगत़ा कंगल़ा है क़ान हैं पर सुनत़ा नहीं
आाँख से कुछ भी दिखत़ा नहीं ि़ारों और है ह़ाह़ाक़ार
कैसे होग़ा कोई िमत्क़ार
म़ानव तुझ को ही करऩा है अपनी करनी क़ा भरऩा है औरों की मत
पर खुि की तो सोि ले ले िम
कल हो लेऩा मिहोश इक अिऩा स़ा तो व़ायरस है क्य़ा उस से भी तू ह़ार गय़ा जीत ज़ाएग़ा म़ानव ये जंग ग़र एक ब़ार तू म़ान गय़ा
बैठ ज़ा घर पर अब है मौक़ा
जीवन िे ज़ाये ऩा कल धोख़ा ©️ मंजीत ऱाजबीर
****************************अल्फ़ाज़**************************** 17
मैं परू ी हूाँ मैं ममत़ा पररभ़ापषत करती हूाँ मैं सुंिर मन अलभल़ापषत करती हूाँ मैं जननी बन स्वयं शंभु की धरती को पुलककत करती हूाँ मैं सख़ा स्वरूप़ा क़ान्ह़ा की बन बंसी प्रेम फैल़ाती हूाँ
मैं रूद्र रूप धर मह़ाक़ाल क़ा शष र दट िक्र िल़ाती हूाँ
मैं अन्नपण ू ़ा़ िे जीवन रस धरती की प्य़ास बुझ़ाती हूाँ मैं ऩारी हूाँ परीपूरण मगर कफर भी आधी कहल़ाती हूाँ मैं औरत हूाँ मैं परू ी हूाँ कफर भी आधी रह ज़ाती हूाँ कफर भी आधी रह ज़ाती हूाँ ©️ मंजीत ऱाजबीर **********
प्रेम सदियों पहले प्रेम थ़ा
अब लसफ़ भूख बिी है ब़ाकी
तब वो ननश्छल कहल़ात़ा थ़ा अब लसफ़ छल बि़ा है ब़ाकी कोई एक मीऱा आ ज़ाये तो डर ज़ाते हैं लोग
अब ऱाम कह़ााँ चगरधर कह़ााँ बस कंस बिे हैं ब़ाकी
उनक़ा डरऩा भी सही लग़ा ये उनकी मजबरू ी है
प्रेम में अब पवश्व़ास कह़ााँ
पर ये उनकी ही कमजोरी है जो कहते हैं की प्रेम तेरा प़ाप है कोई िआ नही ु
पर वो बेि़ारे क्य़ा ज़ाने
प्रेम स़ा प़ावन कुछ हुआ नहीं मैं प़ागल हूाँ िीव़ानी हूाँ मैं करती बस मनम़ानी हूाँ तू समझ सके य़ा ऩा समझे मेरे प्रेम की यही कह़ानी है
मेऱा प्रेम है प़ावन इक गंग़ा
जो तरसे स़ागर क़ा आललंगन पर ऱाह में ककतने प़ाप खड़े उन्क़ा भी जहर करे मंथन तुम ल़ाख लग़ा िो प़ाबंिी
वेग ऩा उसक़ा प़ाओगे रोक तुम कर िो मैली गंग़ा को
पर ऩा प़ाओगे उसको टोक प्रेम है क़ान्ह़ा की मरु ली मह़ाक़ाल क़ा नत्य़ है ये ये ब़ाररशों क़ा है प़ानी झरनों की है ये व़ाणी
मैं मीर क़ा हूाँ इकत़ाऱा मेऱा ऱाग प्रेम की है गज ंु न
मैं ही ऱाध़ा की हूाँ मेहन्िी क़ान्ह़ा की म्जसमें है धड़कन तुम रोक सको, ऩा टोक सको ऩा जंजीरें , ऩा तकरीरें
यही तो प्रेम कह़ानी है
यही हैं प्रेम की तकिीरें
****************************अल्फ़ाज़**************************** 18 सदियों पहले स़ा प्रेम लमले
दिल से दिल को ऱाह होती है
मैं आप ही सर नव़ा िाँ ग ू ी
ज़ायेग़ा
ग़र आज भी िश़न करने को उसक़ा अलभनन्िन करने को उसकी गुंजन पुहाँि़ा िाँ ग ू ी
प़ावन नदियों में, पह़ाड़ों में लशव शंभु की लशल़ाओं में
और प्रेमी करष्ण के शंखों में मेऱा प्रेम तो है ननश्छल प़ावन
मेरे लशव शम्भु शंकर प्य़ारे से पर ये संस़ारी क्य़ा समझें
मेरी लगन लगी ककस त़ारे से मेरी लगन लगी ककस त़ारे से मीऱा होके मगन नज़र िे खे गगन
वो तो गली गली
प्रेम गीत ग़ाने लगी ©️ मंजीत ऱाजबीर
अगर तूं ि़ाहेग़ा तो ऱास्त़ा लमलने क़ा नजर आ ही
ब़ात जज़्ब़ात की होती तो और ब़ात थी
दिख़ावे के ललए ही सही दिल भर तो तेऱा भी आ ही ज़ायेग़ा
*****©️ अि़ऩा गप्ु त़ा *****
ए मेरे रहबर । तम् ु हें ख़बर है क्या के ककि तरह गज ु रती है नहीीं तुम्हारे बबना जजींिगी िींवरती है मौकापरस्त लोग हैं चारों तरफ मेरे नजर इन्हीीं पर िब ु ह-शाम रहती है
नहीीं हो तुम तो ज़माने िे हमको क्या लेना
मैं वो निी हूीं जो रवानी िे अपनी बहती है. बबखर रहा है सिराजा जजींिगी का मेरी,
उिाि शामें चप ु चाप के आहह भरतीीं है मेरे एतबार को है तार तार तूने ककया,
आ ही ज़ाएग़ा
के फरते ग़म िे जजस्त मेरी पपघलती है.
दिल से ऩा सही दिख़ावे के ललए तो आ ही ज़ायेग़ा
चगरचगट की तरह रोज बिलता रहा तू रीं ग
ह़ाल अपने पे श़ायि तरस उसको आ ही ज़ायेग़ा पत्थऱा गई है आंखें उसकी ऱाह तकते तकते
आव़ाज़ िी है ब़ात क़ा म़ान रखने के ललए तो आ ही ज़ायेग़ा
तुझे महसस ू कर के ही एहस़ास हो ज़ात़ा है यूं तो तेऱा तुझे नजर भर िे खऩा ि़ांहू तो श़ायि तूं रू ब रू आ ही ज़ायेग़ा
आींिओ ू ीं की बाररश में शाम मेरी ढलती है
ताज़ा हर एक ज़ख्म, जले यािों के चचराग,
खून ए जजगर िे टपके है, िाींिे अब भी चलती है . अब अपने आप िे ही है बेगाना जजींिगी,
ििद आहें भरती हूीं, और आरजूएीं मचलती है *****©️ अि़ऩा गुप्त़ा*****
****************************अल्फ़ाज़**************************** 19
ज़ा बेवफ़ा ज़ा।। हम जब से उन्हे सब बत़ाने लगे ,
क्यों वो हर ब़ात हमसे छुप़ाने लगे ।
ह़ाल ये है कक हम ऩाम पुक़ारते रहते हैं ,
और वो हर ब़ार अनसुऩा कर के ज़ाने लगे । रहते थे वो हम़ारे आस प़ास ि़ारों पहर ,
क्यों हर लम्ह़ा हमसे िरू रहकर त्रबत़ाने लगे ।
छोड़कर तो िल दिये तुम एक पल में हमको , म्जस प्य़ार को प़ाने में हमको जम़ाने लगे ।
कभी मुझसे लमलकर ही खखलखखल़ा िेते थे , क्यों गैरों के कंधो पे आाँसू चगऱाने लगे ।
तम ु भल ु ़ा बैठो बेशक अपने लमलने कक जगह ,
भूल गए, हमें िे खकर नुम्क्लअर तुम्ह़ारे िर पे वो स़ाऱा स़ाम़ान मेरा था, गली के दायें से चौथा मकान मेरा था, और तम ु जिसे कहते हो पाक़ मुल्क हुजऱू , पुराने वक़्त में हहन्दस् ु तान मेरा था;
हम तो नींि में भी िलकर वह़ााँ तक ज़ाने लगे । स़ाथ तुम्ह़ारे िलते िलते अक्सर,
ऱास्ते क़ा पत़ा ही नहीं िलत़ा थ़ा ।
अब तो जह़ां के ललए ननकलते हैं हम , बस वहीं से ही लौटकर आने लगे ।
हि तो तब हो गई जब तुम्ह़ारी दहि़ायतें , हर ऱाह िलते को हम लसख़ाने लगे ।
आि तुम मानवता की सारी ममसाल भल ़ू गए, पडोसी होकर के अपनी दीवार भल ़ू गए, हमें दे खकर नुजललअर होना याद रहा, हम सब का एक ही 'परवरहदगार' भल ़ू गए;
ब़ातों ब़ातों में वो तम् ु ह़ाऱा प़ागल कह िे ऩा ,
ये ककरि़ार भी हम बड़ी संजीिगी से ननभ़ाने लगे । तुम कह़ााँ समझ प़ाओगी मेरे प्य़ार कक गहऱाई,
...Neeraj Tripathi …
जो प्य़ार के िररय़ा को प्य़ास़ा छोड़कर , अब छोटे छोटे हम़ाम में नह़ाने लगे ।
*****©️ उपेन्द्र कुम़ार व़ाऱाणसी***** Portrait Artist Simran Thakur ©️
तम् ु ह़ारी आाँखो क़ा नश़ा जो सर पर उतऱा ज़ागती पलकों में भी इक खम ु ़ारी है ©️
****************************अल्फ़ाज़**************************** Skeletons in my Closet Everyone who is born, gathers some ghosts during the journey called life. But a few twisted demons get locked in the closet, never to see the light, till they themselves decide to surface. Distorted, disfigured, tattered but living, breathing skeletons have decided, that the time has come to exorcise, on their own and come out of the closet. This is a collection of fictional short stories based on true events, which were actually lived, during the journey called Life. Manjeet Rajbir Author
20 awakening slumber, waiting to greet the new hazy day. Suddenly, my sixth sense warned me of something untoward happening around. What, I could not put a name to. There was no traffic on the slithering road I was jogging on. Anyways, there were not many vehicles in the village, neither in the neighbourhood. It was my routine for many years that I followed. I remember trailing behind my daddy when I was a child. He, unfailingly followed this ritual, no matter what the weather was or how his health treated him. Now at eighteen, I still carry over his legacy, judicially. I had a nostalgic smile over my lips which
Chapter one: The man in the SUV
was always there whenever I thought of daddy, and my blissful childhood years. It’s been ten long years without him. Never-
I woke up to witness yet another beautiful
ending, though it seemed that it was only
morning. Calm and serene mist floating
yesterday we used to jog together, I holding
quietly, humming a melodious symphony in
his hands. So secure and happy.
my ears. Calling me, inviting me to live a mighty life. ‘Give it a fight’; my heart softly whispering into my conscious.
I am Ruth. It is my birthday today, but I don’t celebrate, as this was the day when my father went to town to buy me a gift.
I stopped for a while admiring the beautiful
The deadly present which I, in my
valley, the creation so breathtakingly
childishness insisted for. He never returned.
stunning. Tall, overpowering Pine trees, yet
It’s been extremely long years of uncertainty
so humble to spread a soft fragrance
as the authorities could not find him, nor his
around.
body. No one knew where he was. He just
The tiny dew-drops cooling my
burning cheeks lovingly. I was oblivious to all
vanished, in these beautiful mountains, in the
worldly distractions. There were not too many
cool floating clouds, in the greenery of the
though, at this time of the morning, when
nature or deep down the undaunted river
half the village was dreaming in sweet
that flows, encircling the valley of Himalayan Range. No one knew for certain. Only
****************************अल्फ़ाज़**************************** guessed and believed him to be dead. A
21 This man was tall and well built. I could see
decade of suspense and waiting, never-
some grey on his hair. Dewdrops probably.
ending. Hoping. Years of cursing myself
But as the sun was still hiding underneath, it
because, if it was not for my selfishness, he
was not clear enough to see. On top of it,
would still be around, alive. With me, just
the murky clouds were hiding my view,
like days gone by.
though just a couple of feet away. Now I
I looked back over my shoulders, my gut warning me that there was something uncanny. That grey SUV was the same that went downhill twice and returned. Every time it stopped for a few seconds, couple of feet away, slowly trailing me, then moving on as if the driver wanted to say something but
started running faster, with scorching fear surfacing in my gut. My heart sliding in my lungs when I heard another car approaching from the direction I was running towards. Isn’t that the police siren? I thought. Yes, the police car, taking the last bend of the valley towards us. I gave a sigh of relief.
was undecided. This time I was aware of
I nervously looked back, the man hesitated,
those eyes piercing at me. I tried to look
stopped and kept the packet on the road
through the windscreen, squinting my eyes,
and ran back towards his vehicle. He
trying to find out if it was someone I knew.
abruptly started the engine, backed and
The vehicle was new to this place.
screeched, speeding downhill towards the
I had
never noticed it before. At least not that I
dreaded town that had eaten up my father.
remember but certainly it did not belong to
The town I hated and never visited since
anyone I knew.
then. With trembling limbs, I moved towards
For the past so many years, even when I was a kid, there were news of lots of young girls were disappearing from the valley. Nearly all my age. Now, I was scared and started to walk briskly in the opposite direction.
the packet bending to pick it up, too shocked and numb with the fear of ripping my guts. Did I have a near escape from being kidnapped or was it my overworked brain taking its vengeance. My hands were still trembling by the weight of the parcel which felt soft and warm by the
The man, this time got off and started moving towards me. He had a packet in his hands and was calling me by the name that only daddy would. I froze. How did he
touch of the man who was holding it a fraction of a minute back. The note attached to it read: I am sorry.
know my name? No one ever has called me by this name since he disappeared. Was my mind playing tricks again?
Rose. It has
been though, since that dreadful evening.
The police van stopped next to me. I was too dumbfounded to even notice it. I was
****************************अल्फ़ाज़**************************** 22 staring at the car speeding down taking risky
He was alive. Should I celebrate the fact
bends, undaunted. The officer asked:
that he was alive or morn the truth that he
Are you all right Ruth? (Since he was my fellow villager, the habitat comprising of just over fifty families, we knew each other well). So many times, we have told you not to take strolls on this road at these unearthly hours of the morning, but all in vain he said; not expecting an answer, he carried on... Now, (Rohit, a young police officer was speaking again) we saw that man stopped his car a few feet away from you. Did he bother you? Did he say anything? I opened my mouth to incoherently utter something but my voice was imprisoned in
just died. In front of my blazing sight. Today, on my birthday. He actually did, ten years back, but today he freed himself from my memories and in turn, releasing me of his. Today, I got the freedom from his ghost, haunting me ever since I was eight. The packet still unopened in my closet as I knew it contained the red flowing dress I asked for, at what cost. The dress, not for an eight-year-old but for a young eighteen, whose love, admiration and trust died on her birthday. Opening the closet:
my dried-up throat, my eyes filled with the
I am eighty-six today. Still powerless to
mist that was outside a few moments back.
forget or forgive the ghost residing in me as
Still not really expecting an answer, he
a skeleton in the closet of my soul. As
ordered me to return home immediately. He
unsure and confused as I was at eighteen.
continued… we are chasing the man behind
Unable to share the secret, just one secret,
the kidnappings of the young girls from our
so huge to hold a lifetime of misery, and so
village. We got a sure tip this time (smiled)
furiously sharp, stabbing my entire being, still
and started the engine, speeding downhill,
bottled up inside me. Till today I was not
chasing the stranger.
sure as the stranger slipped unscathed from
I was too flabbergasted, too dumbstruck, too
the police.
shattered to react. My mind was blocked
Was my father a distorted filthy-minded
with the shock that I was holding in my
abductor of young flesh? Or was he
trembling hands. It seemed like it was a live
innocent? Who really was that man, in the
bomb which had got stuck to me. Still with
grey SUV?
shaking hands and shivering mind I was staring at both the vehicles, one behind the other speeding down, one chasing the other, my daddy, a kidnapper of young girls of my age. Please tell me god it’s not true.
At my age, it did not matter anymore but it really did. I wept into my pillow to sleep, as always.
The packet still unopened.
****************************अल्फ़ाज़**************************** 23